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(भाग:219) जानिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के हाथों भक्त जटायु का कैसे हुआ अंतिम संस्कार और मोक्ष

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भाग:219) जानिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के हाथों भक्त जटायु का कैसे हुआ अंतिम संस्कार और मोक्ष

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टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री: सह-संपादक रिपोर्ट

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वालमीकि रामायण के अनुसार प्रजापति कश्यप जी की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए गरुड़ और अरुण। अरुण जी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच से लौट आए परन्तु सम्पाती उड़ते ही चले गए। सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वह समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गए। चंद्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता युग में श्री सीता जी की खोज करने वाले बंदरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।
जटायु पंचवटी में आकर रहने लगे। एक दिन शिकार के समय महाराज दशरथ से इनका परिचय हुआ और यह महाराज दशरथ के अभिन्न मित्र बन गए। वनवास के समय जब भगवान श्री राम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्री राम अपने पिता के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे।

भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता जी के कहने पर कपट मृग मारीच को मारने के लिए गए और लक्ष्मण भी सीता जी के कटुवाक्य से प्रभावित होकर श्री राम को खोजने के लिए निकल पड़े। आश्रम को सूना देख कर रावण ने सीता जी का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठा कर आकाश मार्ग से लंका की ओर ले चला।

सीता जी का करुण विलाप सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा। जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ और अंत में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले।जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और सीता जी को लेकर रावण लंका की ओर चला गया। सीता जी को खोजते हुए भगवान श्री राम की दृष्टिï घायल जटायु पर पड़ी।

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जटायु मरणासन्न थे। वह श्री राम के चरणों का ध्यान करते हुए उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे थे। इन्होंने श्री राम से कहा, ‘‘राक्षसराज रावण ने मेरी यह दशा की है। वह सीता जी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर गया है। मैंने आपके दर्शनों के लिए ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अंतिम विदा दें।’’

भगवान श्री राम के नेत्र भर आए। उन्होंने जटायु से कहा, ‘‘तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूं, आप अभी संसार में रहें।’’

जटायु बोले, ‘‘श्री राम! मृत्यु के समय आपका नाम मुख से उच्चरित हो जाने पर अधम प्राणी भी भव बंधन से मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात आप स्वयं मेरे पास हैं। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।’’
भगवान श्री राम ने पक्षीराज जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ किया। जटायु ने उनके मुख कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया। इन्होंने परोपकार के बल पर भगवान का आश्रय प्राप्त किया और भगवान ने इनकी अन्त्येष्टि क्रिया को अपने हाथों से सम्पन्न किया। पक्षीराज जटायु के सौभाग्य की महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता।
अतीत में पशु पक्षियों को भी मिला है मोक्ष
यह देख प्रभु बहुत प्रसन्न हुए और जब वह गिलहरी मृत्यु को प्राप्त हुई तो उसे मोक्ष मिला यानी वह आजीवन वैकुंठ धाम में चली गई
इंसान ही नहीं बल्कि पशु, पक्षियों को भी मोक्ष मिलता है। यह बात सत्य है। हिंदू पौराणिक कथाओं में इसका विस्तार से उल्लेख मिलता है। त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने श्रीराम और द्वापर युग में श्रीकृष्ण के रूप में मानव अवतार लिया था।

इस दौरान ऐसे पशु-पक्षी जिन्होंने प्रभु की सहायता की तब स्नेहवश उन्हें श्रीराम और श्रीकृष्ण ने उन्हें मोक्ष प्रदान किया। त्रेतायुग में जब श्रीराम मौजूद थे। उस समय उन्होंने जटायु को मोक्ष प्रदान किया था। जटायु अरुण देवता के पुत्र थे। इनके भाई का नाम सम्पाती था। ‘रामायण’ में सीताजी के हरण के प्रसंग में जटायु का उल्लेख प्रमुखता से किया गया है।

जब लंका का रावण सीता का हरण करके आकाशमार्ग से पुष्पक विमान में जा रहा था, तब जटायु ने रावण से युद्ध किया। युद्ध में बलशाली रावण ने जटायु के पंख काट डाले, जिससे वह घायल हो गए और धरती पर गिर पड़े। जब श्रीराम और लक्ष्मण सीताजी की खोज कर रहे थे, तभी उन्होंने जटायु को मूर्छित अवस्था में पाया।

जटायु ने ही राम को बताया कि रावण सीता का हरण करके लंका ले गया है और बाद में उसने प्राण त्याग दिये। राम-लक्ष्मण ने उसका दाह संस्कार, पिंडदान तथा जलदान किया था। अंत में जटायु को मोक्ष मिला।

ठीक, इसी तरह मारीच राक्षस को भी मोक्ष प्राप्त हुआ, क्योंकि उसकी मृत्यु श्रीराम के द्वारा चलाए गए बाण से हुई थी। मारीच वही था, जिसने स्वर्ण मृग बन श्रीराम को सीता से अलग किया और फिर रावण ने सीता का अपहरण किया।

रामायण में ही उल्लेख मिलता है कि जब वानर श्रीराम सेतु का निर्माण कर रहे थे, उस समय एक गिलहरी भी उनका साथ दे रही थी। यह देख प्रभु बहुत प्रसन्न हुए और जब वह गिलहरी मृत्यु को प्राप्त हुई तो उसे मोक्ष मिला यानी वह आजीवन वैकुंठ धाम में चली गई

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