भाग:98) श्रीमद्-भगवत गीता में साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय-वर्णन
टेकचंद्र सनोडिया शास्त्री:सह-संपादक की रिपोर्ट
प्रश्न: परमात्मा साकार है या निराकार?
उत्तरः परमात्मा साकार है, नर स्वरुप है अर्थात् मनुष्य जैसे आकार का है।
प्रश्न: अव्यक्त का अर्थ निराकार होता है?
उत्तर: नहीं, अव्यक्त का अर्थ साकार होता है।
उदाहरण के लिए जैसा सूर्य के सामने बादल छा जाते हैं, उस समय सूर्य अव्यक्त होता है। हमें भले ही दिखाई नहीं देता, परन्तु सूर्य अव्यक्त है, साकार है। जो प्रभु हमारे को सामान्य साधना से दिखाई नहीं देते, वे अव्यक्त कहे जाते हैं। जैसे गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता ने अपने आपको अव्यक्त कहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोल रहा था। जब व्यक्त हुआ तो विराट रुप दिखाया था। यह पहला अव्यक्त प्रभु हुआ जो क्षर पुरुष कहलाता है। जिसे काल भी कहते है। गीता अध्याय 8 श्लोक 17 से 19 तक दूसरा अव्यक्त अक्षर पुरुष है। गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि इस अव्यक्त अर्थात् अक्षर पुरुष से दूसरा सनातन अव्यक्त परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर पुरुष है। इस प्रकार ये तीनों साकार(नराकार) प्रभु हैं। अव्यक्त का अर्थ निराकार नहीं होता। क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं कभी भी अपने वास्तविक रुप में किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा।
प्रमाण: गीता अध्याय 11 श्लोक 47-48 में जिसमें कहा है कि हे अर्जुन! यह मेरा विराट वाला रुप आपने देखा, यह मेरा रुप आपके अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा, मैंने तेरे पर अनुग्रह करके दिखाया है।
गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि यह मेरा स्वरुप न तो वेदोें में वर्णित विधि से, न जप से, न तप से, न यज्ञ आदि से देखा जा सकता। इससे सिद्ध हुआ कि क्षर पुरुष (गीता ज्ञान दाता) को किसी भी ऋषि-महर्षि व साधक ने नहीं देखा। जिस कारण से इसे निराकार मान बैठे। सूक्ष्म वेद (तत्व ज्ञान) में कहा है ’’खोजत-खोजत थाकिया, अन्त में कहा बेचून। (निराकार) न गुरु पूरा न साधना, सत्य हो रहे जूनमं-जून।। (जन्म-मरण) अब गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट कर ही दिया है कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। किसी के समक्ष नहीं आता, मैं अव्यक्त हूँ। छिपा है तो साकार है। अक्षर पुरुष भी अव्यक्त है, यह ऊपर प्रमाणित हो चुका है। इस प्रभु की यहाँ कोई भूमिका नहीं है। यह अपने 7 शंख ब्रह्माण्डों तक सीमित है। इसलिए इसको कोई नहीं देख सका।
परम अक्षर पुरुष:– इस प्रभु की सर्व ब्रह्माण्डों में भूमिका है। यह सत्यलोक में रहते हैं जो पृथ्वी से 16 शंख कोस (एक कोस लगभग 3 किमीका होता है) दूर है। इसकी प्राप्ति की साधना वेदों (चारों वेदों) में वर्णित नहीं है। जिस कारण से इस प्रभु को कोई नहीं देख सका। जब यह प्रभु (परम अक्षर ब्रह्म) पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होता है तो कोई इन्हें पहचान नहीं पाता। परमात्मा कहते भी हैं किः-
’’हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतुब-गोस और पीर।
गरीब दास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।’’
हम पूर्ण परमात्मा हैं, हम ही पीर अर्थात् सत्य ज्ञान देने वाले सत्गुरु हैं। सर्व सृष्टि का मालिक भी मैं ही हूँ, मेरा नाम कबीर है। परन्तु सर्व साधकों ऋषियों-महर्षियों ने यही दृढ़ कर रखा होता है कि परमात्मा तो निराकार है। वह देखा नहीं जा सकता। यह पृथ्वी पर विचरने वाला जुलाहा (धाणक) कबीर एक कवि कैसे परम अक्षर ब्रह्म हो सकता है।
उसका समाधान इस प्रकार है:-
विश्व में कोई भी परमात्मा चाहने वाला बुद्धिमान व्यक्ति चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) को गलत नहीं मानता। वर्तमान में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द को वेदों का पूर्ण विद्वान माना जाता रहा है। इनका भी यह कहना है कि ‘‘परमात्मा निराकार’’ है। आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द वेदों के ज्ञान को सत्य मानते हैं। इन्होंने स्वयं ही वेदों का हिन्दी अनुवाद किया है। जिसमें स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा ऊपर के लोक में रहता है। वहाँ से गति करके (चल कर सशरीर) पृथ्वी पर आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है, उनको यथार्थ भक्ति का ज्ञान सुनाता है। परमात्मा तत्वज्ञान अपने मुख कमल से उच्चारण करके लोकोक्तियों, साखियों, शब्दों, दोहों तथा चैपाईयों के रुप में पदों द्वारा बोलता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी के ऊपर विचरण करता रहता है। भक्ति के गुप्त मन्त्रों का आविष्कार करके साधकों को बताता है। भक्ति करने के लिए प्रेरणा करता है।
प्रमाण देखें वेदों के निम्न मंत्रों की फोटोकाँपियां पुस्तक (गीता तेरा ज्ञान अमृत) के पृष्ठ 101 पर।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 1-2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16-20, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1 और भी अनेकों वेद मन्त्रों में उपरोक्त प्रमाण है कि परमात्मा मनुष्य जैसा नराकार है। श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में भी प्रमाण है। गीता ज्ञान दाता ने बताया कि हे अर्जुन! परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से तत्वज्ञान बोलकर बताता है, उस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी में यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी विस्तार से कही गई है। उसको जानकर सर्व पापों से मुक्त हो जाएगा। फिर गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत प्रणाम करके विनयपूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वदर्शी सन्त तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
यह प्रमाण आप को बताए और विशेष बात यह है कि गीता चारों वेदों का सारांश है। इसमें सांकेतिक ज्ञान अधिक है। यह भी स्पष्ट हुआ कि तत्वज्ञान गीता ज्ञान से भी भिन्न है। वह केवल तत्वदर्शी संत ही जानते हैं जिनको परम अक्षर ब्रह्म स्वयं आकर धरती पर मिलते हैं।
महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 36वें अध्याय में ‘साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता के निर्णय का वर्णन’ दिया हुआ है, जो इस प्रकार है[1]-
साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का
संबंध- गीता के दूसरे अध्याय से लेकर छठे अध्याय तक भगवान ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है। सातवें अध्याय से ग्यारहवें अध्याय तक तो विशेष रूप से सगुण भगवान की उपासना का महत्त्व दिखलाया है। इसी के साथ पांचवे अध्याय में सत्रहवें से छब्बीसवें श्लोक तक, छठे अध्याय में चौबीसवें से उन्तीसवें तक, आठवें अध्याय में ग्यारहवें से तेरहवें तक तथा इसके सिवा और भी कितनी ही जगह निर्गुण की उपासना का महत्त्व भी दिखलाया है। आखिर ग्याहरवें अध्याय के अंत में सगुण-साकार भगवान की अनन्य भक्ति का फल भगवत्प्राप्ति बतलाकर ‘मत्कर्मकृत्’ से आरम्भ होने वाले इस अंतिम श्लोक में सगुण-साकार-स्वरूप भगवान के भक्त की विशेष-रूप से बड़ाई की। इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकर ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन हैं- अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? श्रीभगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त, होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं,[2] वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्या निर्गुण-निराकर ब्रह्म के उपासक उत्तम योगवेत्ता नहीं है; इस पर कहते हैं।[1] परंतु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरंतर एकीभाव से (अभिन्नभाव से) ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत[3] और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।[4]
संबंध- इस प्रकार निर्गुण-उपासना और उसके फल का प्रतिपादन करने के पश्चात अब देहाभिमानियों के लिये अव्यक्त गति-की प्राप्ति को कठिन बतलाते हैं- उन सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है,[5] क्योंकि देहाभिमानियों के द्वारा अव्यक्तविषयक गति दु:खपूर्वक प्राप्त की जाती है।[6] परंतु जो मेरे परायण रहने वाले[7] भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके[8] मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्यभक्ति योग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं।[9] हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।[10] संबंध- इस प्रकार पूर्वश्लोकों में निर्गुण-उपासना की अपेक्षा सगुण-उपासना की सगुमता का प्रतिपादन किया गया। इसलिये अब भगवान अर्जुन को उसी प्रकार मन-बुद्धि लगाकर सगुण-उपासना करने की आज्ञा देते है। मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा; इसके अनंतर तू मुझमें ही निवास करेगा,[11] इसमें कुछ भी संशय नहीं है। यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिये समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिये इच्छा कर।[12][13]
यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये कर्म करने के ही परायण हो जा।[14] इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्तिरूप सिद्धि का ही प्राप्त होगा।[15] यदि मेरी प्राप्तिरूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है तो मन-बुद्धिआदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर।[16] संबंध-छठे श्लोक से आठवें तक अनन्य ध्यान का फल सहित वर्णन करके नवें से ग्यारहवें श्लोक तक एक प्रकार के साधन में असमर्थ होने पर दूसरा साधन बतलाते हुए अंत में ‘सर्वकर्मफलत्याग’ रूप का साधन का वर्णन किया गया। इससे यह शंका हो सकती है कि ‘कर्मफलत्याग’ रूप साधन पूर्वोक्त अन्य साधनों की अपेक्षा निम्न श्रेणी का होगा; अत: ऐसी शंका को हटाने के लिये कर्मफल के त्याग का महत्त्व अगले श्लोक में बतलाया जाता है[13]- मर्म को न जानकर किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है,[17] ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ[18] है और ध्यान से भी सब कर्मो के फल का त्याग श्रेष्ठ है;[19] क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शांति होती है।